2014 के लोकसभा चुनाव देश की जनता के मुद्दों पर हुए थे. महंगाई पर हुए थे, महिला सुरक्षा पर हुए थे, बेरोजगारी पर हुए थे, सरकार द्वारा किए गए तथाकथित भ्रष्टाचार पर हुए थे और अन्ना हजारे के आंदोलन ने कांग्रेस को कमजोर किया था. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने मीडिया का सहारा लेकर उस आंदोलन का फायदा उठाया और जनता के मुद्दों पर बैठकर कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंका.
2014 का लोकसभा चुनाव बीजेपी ने जीत लिया. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए. चुनाव ऐसे ही होने चाहिए जनता के मुद्दों पर और सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ. सरकार पर जो भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे 2014 और उससे पहले वह आरोप सही थे या नहीं सही थे यह तो बाद में पता चला. लेकिन जनता के मुद्दों पर चुनाव हुआ और कांग्रेस बुरी तरह 2014 का लोकसभा चुनाव हार गई.
2014 का लोकसभा चुनाव जनता के मुद्दों पर लड़ा गया और उसमें कांग्रेस की हार हुई, बीजेपी की जीत हुई. लेकिन उसके बाद राज्यों के चुनाव हो या फिर 2019 का लोकसभा चुनाव हो या फिर 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारियां जिन मुद्दों पर हो रही हैं, क्या वह जनता के मुद्दे हैं?
2014 के मुकाबले महंगाई कई गुना बढ़ चुकी है. पेट्रोल डीजल के दाम लगभग दोगुने हो चुके हैं. बेरोजगारी का पहाड़ खड़ा है. महिला सुरक्षा की तो बात ही क्या की जाए, बीजेपी के बड़े नेताओं पर ही महिला सुरक्षा से खिलवाड़ करने के आरोप लग रहे हैं. लेकिन इन तमाम मुद्दों पर चुनाव लड़कर जीत जाना अब कांग्रेस के बूते की बात नहीं है आखिर क्यों?
2014 के बाद से ही देश में एक धार्मिक उन्माद पैदा हुआ है और यह उन्माद एक खास विचारधारा के लोगों द्वारा पैदा किया गया है. मीडिया में भी बात धार्मिक मुद्दों पर कहीं अधिक होती है. मीडिया में केंद्र सरकार की जवाबदेही तय नहीं की जा रही है. सत्ताधारी पार्टी के नेताओं द्वारा यह कोशिश की जाती है कि धार्मिक मुद्दों पर बहस जारी रहे, ताकि जनता के जरूरी मुद्दों पर बात ना करनी पड़े जिससे उन्हें समस्या पैदा ना हो.
आज विपक्षी पार्टी के नेता भी वोट बैंक की राजनीति के लिए जनता के मुद्दों को उठाने की बजाय धार्मिक मुद्दों पर बयानबाजी करते हैं जिसका सीधा लाभ बीजेपी को होता है. मीडिया द्वारा तथाकथित बाबाओं और संतों द्वारा दिए गए बयानों पर बहस करवाई जाती है, ताकि देश की जनता का ध्यान उनकी समस्याओं से हटकर धार्मिक मुद्दों पर जाए और यह किसी से छुपा नहीं है कि अगर धर्म के नाम पर चुनाव होंगे राजनीति होगी तो उसका सीधा लाभ मौजूदा सत्ताधारी पार्टी बीजेपी को होगा.
समाजवादी पार्टी से लेकर आरजेडी तक जो भी क्षेत्रीय पार्टियां हैं उनके नेता इस वक्त रामचरितमानस को लेकर बयानबजी कर रहे हैं और मीडिया में उसको लेकर डिबेट भी हो रही है. लेकिन रामचरितमानस को लेकर जो बयानबाजी क्षेत्रीय पार्टी के नेताओं द्वारा हो रही है और मीडिया उनके बयानों पर जिस तरह से बीजेपी के लिए राजनीतिक पिच तैयार कर रहा है, क्या इन मुद्दों पर कांग्रेस बीजेपी को हराने की क्षमता रखती है?
बयानबाजी रामचरितमानस को लेकर भले ही क्षेत्रीय पार्टी के नेता कर रहे हो, लेकिन उसका सीधा नुकसान कांग्रेस को होता हुआ दिखाई दे रहा है. क्योंकि अगर इन मुद्दों पर जनता का ध्यान टिका रहेगा तो कभी भी जनता अपने खुद के मुद्दों पर, खुद की समस्याओं पर वोट देने के बारे में सोच भी नहीं सकती और वह कहीं ना कहीं जाकर बीजेपी को धार्मिक मुद्दों पर वोट देगी. क्योंकि मीडिया द्वारा यही नैरेटिव बनाया गया है कि सनातन धर्म या फिर कहें हिंदू धर्म की सबसे बड़ी रक्षक इस वक्त बीजेपी है और उसके नेता है.
रामचरितमानस के अलावा इस वक्त बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री मीडिया में छाए हुए हैं और उनको लेकर भी कहीं से भी कोई असमंजस की स्थिति नहीं है. निश्चित तौर पर वह बीजेपी और उसकी विचारधारा से जुड़े हुए व्यक्ति दिखाई देते है और उनको लेकर भी अगर माहौल तैयार हो रहा है तो उसका भी कहीं ना कहीं लाभ बीजेपी को आने वाले राज्यों के चुनावों में खास तौर पर मध्यप्रदेश में होगा. तो क्या यह जनता से छलावा नहीं है? धर्म के नाम पर आखिर राजनीति कब तक?