गुजरात में विधानसभा चुनाव बस होने ही वाले हैं. ऐसे में तमाम राजनीतिक दल इसको लेकर चुनाव प्रचार में लग चुके हैं. कांग्रेस भी इस बार जी जान से गुजरात का विधानसभा चुनाव लड़ रही है. हालांकि अभी तक कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व गुजरात में पूरी तरह से एक्टिव नहीं हुआ है, लेकिन गुजरात कांग्रेस के नेता गांव-गांव जाकर अपनी पार्टी के लिए वोट मांग रहे हैं और इस बार यह रणनीति काफी कारगर नजर आ रही है. इसके अलावा साल 2017 के गुजरात चुनाव में कुछ सीटें ऐसी थी जहां पर बीजेपी और कांग्रेस में कड़ी टक्कर देखने को मिली थी हालांकि कांग्रेस इन सीटों पर चुनाव हार गई थी.
इस बार कांग्रेस जिन सीटों पर मामूली अंतर से चुनाव हारी थी उन सीटों को जीतने के लिए पूरे दमखम से मेहनत करती हुई नजर आ रही है. वराछा रोड सीट, बोटादव सीट, बारडोली सीट, महुआ सीट, सूरत पूर्व सीट, इसके अलावा भी बहुत सी सीटें ऐसी थी जहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच हार का अंतर बहुत कम था. मामूली अंतर से उन सीटों को कांग्रेस ने गंवा दिया था. इन सीटों पर कांग्रेस इस बार जीतने का पूरा प्रयास करती हुई नजर आ रही है. इसके अलावा गुजरात में कुछ विधानसभा सीटें ऐसी है जो बीजेपी कांग्रेस से लंबे समय से हार रही है. उन पर जीत का रिकॉर्ड कांग्रेस बनाए रखना चाहेगी.
इसके अलावा इस बार भी गुजरात का आदिवासी वोटर चुनावी नतीजों में मुख्य भूमिका निभा सकता है और इसे लुभाने के लिए गुजरात कांग्रेस के नेता कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते. गुजरात की 27 सीटें एसटी कैटेगरी की यानी आदिवासियों के लिए आरक्षित है और माना जाता है कि लगभग इतनी ही अन्य सीटों पर भी आदिवासी वोटर का ही प्रभाव है. 2017 में आरक्षित सीटों में सबसे ज्यादा 15 सीटें जीती थी कांग्रेस ने. गुजरात में 15 फ़ीसदी आदिवासी वोटर है. आदिवासी इलाकों की सीटों को जीतने के लिए बीजेपी भी कोई कसर नहीं छोड़ रही है और उसने पूरी एक टीम लगा रखी है नेताओं की.
कांग्रेस मार सकती है बाजी!
आदिवासी इलाकों में कांग्रेस के ऊपर बढ़त बनाने में सबसे बड़ी समस्या बीजेपी के लिए कांग्रेस के युवा विधायक अंनत पटेल है जो दीवार बनकर खड़े हो जा रहे हैं. अंनत पटेल दक्षिण गुजरात के नवसारी जिले की वसंदा सीट से विधायक हैं और विधानसभा में कांग्रेस की तरफ से विपक्ष की सबसे ज्यादा मजबूत विरोध की आवाजों में से एक माने जाते हैं.
अंनत पटेल की ताकत का अंदाजा समझने के लिए बस इतना ही काफी है कि केंद्र की बीजेपी सरकार ने पार, ताप्ती और नर्मदा नदियों को जोड़ने की एक परियोजना का इसी साल बजट में प्रावधान किया था. लेकिन अंनत पटेल ने ऐसा आंदोलन चलाया कि बीजेपी करीब-करीब वैसे ही परेशान हुई जैसा कि किसानों के दबाव में कृषि कानूनों को लेकर देखा गया था. अंनत पटेल ने यह कहकर विरोध शुरू कर दिया कि प्रोजेक्ट के जरिए हमारी जमीन छीनी जाएंगी हम अपने घरों और खेतों से बाहर हो जाएंगे. हम कंक्रीट के जंगलों में नहीं बल्कि कुदरती जंगलों में ही रहना चाहते हैं. इस आंदोलन से बीजेपी बहुत परेशान हुई थी.
लेकिन इन सीटों पर बीजेपी के लिए सबसे समस्या वाली बात यह है कि आदिवासी समुदाय अपने समुदाय के नेता की राजनीतिक भाषा ही ठीक से समझ पाता है कांग्रेस के पास आनंद पटेल एक ऐसे ही नेता है बीजेपी की कोशिश कांग्रेस के चारों तरफ से गिरने की है और प्रधानमंत्री मोदी का शुरू से ही इसी बात पर सबसे ज्यादा जोर नजर आता है जैसे ही प्रधानमंत्री मोदी आदिवासी समुदाय के बीच जाते हैं कांग्रेस ही उनके निशाने पर होती है. आदिवासी इलाकों में प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि एक तरफ़ कॉन्ग्रेस तो दूसरी तरफ़ बीजेपी की सरकार देख लीजिए. कांग्रेस के नेताओं ने आदिवासी समाज का सिर्फ मजाक उड़ाया है. पहले कि सरकार को आपकी नहीं आपके वोट की चिंता हुआ करती थी.
लेकिन यहां समस्या वाली बात यह है प्रधानमंत्री मोदी के साथ कि उनकी इस बात से आदिवासी समुदाय थोड़ा सा कंफ्यूज हो सकता है. आखिर प्रधानमंत्री मोदी पहले वाली किसकी सरकार की बात कर रहे हैं? अगर वह गुजरात की सरकार की तरफ इशारा कर रहे हैं तो 27 साल से भी पहले की बात है जब कोई दूसरी सरकार हुआ करती थी. और अगर वह केंद्र की कांग्रेस सरकार की नीतियों की याद दिलाना चाहते हैं तो भी दोबारा सत्ता में आने के बाद पिछली सरकारों को दोष देने का क्या मतलब रह जाता है?