लंबे समय से बुलडोजर के जरिए देश में एक संदेश देने की कोशिश हो रही है. इस बुलडोजर व्यवस्था का विरोध भी तेजी से हो रहा है. लेकिन कुछ सरकारें बुलडोजर के सहारे राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रही है. इसी को लेकर वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार (Ravish Kumar) ने अपने सोशल मीडिया के माध्यम से और अपने चैनल के माध्यम से अपनी बात रखी है.
रवीश कुमार ने कहा है कि लोकतंत्र की यही खूबी है. अदालत की कार्यवाही में देरी से निराशा होती है तो उम्मीद का भी दरवाजा भी अदालत ही है. हर तरफ से जब निगाहें थक जाती हैं तब अदालत की तरफ ही उठती हैं. अदालत आत्मा है, आत्मा की अंतरात्मा है, अंतर आत्मा में परमात्मा है और परमात्मा में सांत्वना है कि अभी हम हैं.
रवीश कुमार ने आगे कहा है कि केवल एक इमारत और उसमें आते जाते लोगों से अदालत की कल्पना करने वाले भी नहीं जानते कि अदालत किन चीजों से बनती है. बुलडोजर ने जिस घर को तोड़ा है उस घर से निकले एक-एक सामान से कोई चाहे तो अदालत की इमारत बना सकता है. आइए मिलकर गिनते हैं कि अदालत की इमारत के लिए किन-किन चीजों की जरूरत होती है. ईट, सीमेंट, छड़, रेत, रंग, लोहे, दरवाजों के लिए जंगल काट कर लाई गई लकड़ियां, बहुत सारी कुर्सियां, कुर्सियों पर रखे जाने वाले गद्दे, सफेद तौलिया, मेज, मेज पर चमड़े की चादर.
ऐसी ही बहुत सारी चीजों का उल्लेख रवीश कुमार ने अपनी बातों में और अपने लेख में किया है. रवीश कुमार ने कहा है कि एक कटघरा भी तो चाहिए जिसमें हम सब खड़े हैं. हमारा समय खड़ा है. कुछ चीजें छूट गई हो तो हर वह चीज इस मलबे से निकल सकती है, जिससे जोड़कर एक अदालत बनाई जा सकती है. संसद की एक इमारत बनाई जा सकती है. न्यूज़ चैनलों का हेड क्वार्टर बनाया जा सकता है.
रवीश कुमार ने आगे कहा है कि, अगर हताशा में भी कोई कहता है कि चुप्पी से लगता है कि अदालत नहीं है तो वह गलत है. अदालत है. अगर अन्याय है तो अदालत भी है. जब तक मलबे से यह सारे सामान निकलते रहेंगे अदालत होने की कल्पना बाकी रहेगी. क्या मैंने कुछ गलत कहा?