उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) की सरकार में मंत्री एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद अब शिवसेना टूट की कगार पर खड़ी है. जनता के नाम एक भावनात्मक संदेश जारी कर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अब अपने सरकारी आवास से अपना सारा सामान लपेटकर मातोश्री पहुंच चुके हैं. इस बीच या जानकारी भी सामने आ रही है कि विधायकों की तरह ही शिवसेना के 19 में से करीब आठ नौ सांसद भी उद्धव का दामन छोड़ सकते हैं. हालांकि दल बदल विरोधी कानून की वजह से शिवसेना में रहना उनकी मजबूरी होगी.
दरअसल राजनीति में बंद मुट्ठी ही लाख की होती है. एकनाथ शिंदे ने केवल शिवसेना को नहीं तोड़ा बल्कि ठाकरे सरकार वाली जो वर्षों पुरानी ठसक थी उसे भी नेस्तनाबूद कर दिया है. पहले जब कभी भी ऐसा होता था तो उग्र शिवसैनिक तोड़फोड़ मचा देते थे. लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. यही वजह है कि एक डेढ़ दिन की उठापटक में ही ठाकरे पक्ष ने हथियार डाल दिए हैं. वह मन से मान चुके हैं कि अब सरकार जाना तय है.
उद्धव ठाकरे ने अपने भाषण में ना किसी साजिश का जिक्र किया, ना हमलावर तेवर अपनाए, ना ही किसी पार्टी या व्यक्ति को निशाने पर लिया. जबकि शिवसैनिक हमलावर होता है. पर उद्धव की स्पीच सुनकर ऐसा लगा मानो वह निराश हैं. उन्हें लोकतंत्र की चिंता थी तो विधायक मंत्री गए हैं, उन्हें बेनकाब करना था, उनके गलत कामों को बेपर्दा करना था. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. बाला साहब ठाकरे के समय यदि कोई पार्टी से गद्दारी करता था तो उसके खिलाफ काफी सख्त रवैया अपनाया जाता था. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
मानो सब कुछ हाथ से निकल जाने के बाद उद्धव ठाकरे अपने पिता बाल ठाकरे के 30 साल पहले वाले अंदाज में दिखने की कोशिश कर रहे थे. दरअसल जुलाई 1992 में भी शिवसेना में विरोध के स्वर उठ रहे थे. उस दौरान बालासाहेब ठाकरे और उनकी कार्यशैली पर शिवसेना के ही एक पुराने साथी माधव देशपांडे ने सवाल उठा दिए थे. विरोध के सुर उठते देख बाल ठाकरे ने सामना में अपने तेवर में एक लेख में कहा, अगर एक भी शिवसैनिक मेरे और मेरे परिवार के खिलाफ खड़ा हो और यह कह दे कि आपकी वजह से हमने शिवसेना छोड़ दी या आपने हमें चोट पहुंचाई, तो मैं एक पल के लिए भी शिवसेना प्रमुख के रूप में बने रहने के लिए तैयार नहीं हूं.
बाल ठाकरे के इस लेख का ऐसा असर हुआ कि शिवसेना भवन के बाहर बाल ठाकरे के लाखों शिवसैनिकों की भीड़ जमा हो गई. उनके पार्टी छोड़ने का ऐलान से लोग सारे विरोधियों को बुलाकर उन्हें मनाने में लग गए कि पार्टी बाल ठाकरे के बिना नहीं चल सकती. उस घटना के बाद से शिवसेना की कमान जब तक बाल ठाकरे के हाथों में रही तब तक पार्टी में विरोध के स्वर देखने को नहीं मिले. ऐसे ही कुछ हालत अब 30 साल बाद उद्धव ठाकरे के सामने बन रही है.
देश की राजनीति मीटिंग में किंगमेकर और किंग की लंबी कहानियां है. कई महान व्यक्तित्व किंगमेकर रहे, लेकिन कभी किंग नहीं बने. जो बने वह आखिरकार विफल हुए. किंग बनकर विफल होने वालों में उद्धव ठाकरे सबसे ताजा उदाहरण है. जिन महान लोगों ने किंगमेकर होते हुए भी कभी सत्ता का मोह नहीं किया उनमें चाणक्य सबसे पहले और चर्चित उदाहरण है. एक साधारण शिक्षक होते हुए भी उन्होंने मगध के राजा धनानंद को सत्ता से उखाड़ कर फेंक दिया, लेकिन खुद कभी सत्ता में नहीं आए. अपने शिष्य चंद्रगुप्त को राजा बनाया.
इसी तरह महात्मा गांधी जयप्रकाश नारायण और जेपी का उदाहरण है. यह लोग कभी खुद सत्ता में नहीं आए इनके आंदोलनों ने वह काम करके दिखाया जो नामुमकिन था. हालांकि देश की राजनीति में विफल किंगमेकर्स भी कम नहीं है. चंद्रशेखर, एचडी देवेगौड़ा, आई के गुजराल भी राजनीतिक विफलता के शिकार हुए. चंद्रशेखर की जनता पार्टी में तो दो ही सांसद थे फिर भी वह प्रधानमंत्री बन बैठे. हश्र वही हुआ. राजीव गांधी के निवास पर हरियाणा के दो सिपाहियों को जासूसी करते देख कांग्रेस गुस्सा गई और चंद्रशेखर को सत्ता से जाना पड़ा.